हिन्दू विवाह अधिनियम १९५५
धारा २१क :
१.(कुछ मामलों में अर्जियों को अन्तरित करने की शक्ति :
(१) जहां-
(a)(क) इस अधिनियम के अधीन कोई अर्जी अधिकारिता रखने वाले जिला न्यायालय में विवाह के किसी पक्षकार द्वारा धारा १० के अधीन न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए या धारा १३ के अधीन विवाह-विच्छेद की डिक्री के लिए प्रार्थना करते हुए पेश की गई है; और
(b)(ख) उसके पश्चात इस अधिनियम के अधीन कोई दूसरी अर्जी विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा किसी आधार पर धारा १० के अधीन न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए या धारा १३ के अधीन विवाह-विच्छेद की डिक्री के लिए प्रार्थना करते हुए, चाहे उसी जिला न्यायालय में अथवा उसी राज्य के या किसी भिन्न राज्य के किसी भिन्न जिला न्यायालय में पेश की गई है, वहां ऐसी अर्जियों के संबंध में उपधारा (२) में विनिर्दिष्ट रीति से कार्यवाही की जाएगी।
(२) ऐसे मामले में जिसे उपधारा (१) लागू होती है,-
(a)(क) यदि ऐसी अर्जियां एक ही जिला न्यायालय में पेश की जाती हैं तो दोनों अर्जियों का विचार और उनकी सुनवाई उस जिला न्यायालय द्वारा एक साथ की जाएगी;
(b)(ख) यदि ऐसी अर्जियां भिन्न-भिन्न जिला न्यायालयों में पेश की जाती हैं तो बाद वाली पेश की गई अर्जी उस जिला न्यायालय को अन्तरित की जाएगी जिसमें पहले वाली अर्जी पेश की गई थी, और दोनों अर्जियों की सुनवाई और उनाका निपटारा उस जिला न्यायालय द्वारा एक साथ किया जाएगा जिसमें पहले वाली अर्जी पेश की गई थी।
३) ऐसे मामले में, जिसे उपधारा (२) का खंड (ख) लागू होता है, यथास्थिति, वह न्यायालय या सरकार, जो किसी वाद या कार्यवाही को उस जिला न्यायालय से, जिसमें बाद वाली अर्जी पेश की गई है, उच्च न्यायालय को जिसमें पहले वाली अर्जी लम्बित है, अन्तरित करने के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता १९०८ (१९०८ का ५) के अधीन सक्षम है, ऐसी वाद वाली अर्जी का अन्तरण करने के लिए अपनी शक्तियों का वैसे ही प्रयोग करेगी मानो वह उक्त संहिता के अधीन ऐसा करने के लिए सशक्त की गई है ।)
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१. १९७६ के अधिनियम सं० ६८ की धारा १४ द्वार अन्त:स्थापित ।