सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम २०००
धारा ४६ :
न्यायनिर्णयन करने की शक्ति :
१) ३.(इस अधिनियम के अधीन) न्यायनिर्णयन करने के प्रयोजन के लिए, जहां किसी व्यक्ति ने इस अधिनियम या इसके अधीन बनाए गए किसी नियम, विनियम १.(दिए गए निदेश या किए गए आदेश के उपबंधों में से किसी का उल्लंघन किया है, जो शास्ति या प्रतिकर का संदाय करने का दायी बनाता है ) वहां केन्द्रीय सरकार, उपधारा (३) के उपबंधों के अधीन रहते हुए भारत सरकार के निदेशक की पंक्ति से अनिम्न किसी अधिकारी या राज्य सरकार के किसी समतुल्य अधिकारी को, केन्द्रीय सरकार द्वारा विहित रीति में जांच करने के लिए,न्यायनिर्णायक अधिकारी के रूप में नियुक्त कर सकेगी ।
२.(१क) उपधारा (१) के अधीन नियुक्त न्यायनिर्णायक अधिकारी उन मामलों का न्यायनिर्णयन करने की अधिकारिता का प्रयोग करेगा, जिनमें ४.(***) नुकसानी के लिए दावा पांच करोड रूपए से अधिक का नहीं है:
परंतु पांच करोड रूपए से अधिक की ४.(***) नुकसानी के लिए दावे की बाबत अधिकारिता सक्षम न्यायालय में निहित होगी ।)
२)न्यायनिर्णायक अधिकारी, उपधारा (१) में निर्दिष्ट व्यक्ति को उस मामले में अभ्यावेदन करने के लिए युक्तियुक्त अवसर देगा और यदि ऐसी जांच के पश्चात उसका यह समाधान हो जाता है कि उस व्यक्ति ने उल्लंघन किया है, तो वह, उस धारा के उपबंधों के अनुसार ऐसी शास्ति अधिरोपित कर सकेगा या ऐसा प्रतिकर अधिनिर्णीत कर सकेगा, जिसे वह ठीक समझे ।
३)कोई व्यक्ति, न्यायनिर्णायक अधिकारी के रूप में तब तक नियुक्त नहीं किया जाएगा जब तक कि उसेक पास सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ऐसा अनुभव और ऐसा विधिक या न्यायिक अनुभव न हो, जो केन्द्रीय सरकार द्वारा विहित किया जाए ।
४) जहां एक से अधिक न्यायनिर्णायक अधिकारी नियुक्त किए गए हैं वहां केन्द्रीय सरकार, आदेश द्वारा, उन विषयों और स्थानों को विनिर्दिष्ट करेगी, जिनकी बाबत ऐसे अधिकारी अपनी अधिकारिता का प्रयोग करेंगे ।
५)प्रत्येक न्यायनिर्णायक अधिकारी को सिविल न्यायालय की वे शक्तियां होंगी, जो धारा ५८ की उपधारा (२) के अधीन साइबर अपील अधिकरण को प्रदान की गई है, और :-
(a)क) उसके समक्ष की सभी कार्यवाहियां भारतीय दंड संहिता (१८६० का ४५) की धारा १९३ और धारा २२८ के अर्थान्तर्गत न्यायिक कार्यवाहियां समझी जाएंगी ;
(b)ख) उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता, १९७४ (१९७४ का २) की धारा ३४५ और धारा ३४६ के प्रयोजनार्थ सिविल न्यायालय समझा जाएगा।
(c)२.(ग)सिविल प्रक्रिया संहिता, १९०८ (१९०८ का ५) के आदेश २१ के प्रयोजनों के लिए सिविल न्यायालय समझा जाएगा।)
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१. २००९ के अधिनियम सं. १० की धारा २३ द्वारा प्रतिस्थापित ।
२. २००९ के अधिनियम सं. १० की धारा २३ द्वारा अंत:स्थापित ।
३. जन विश्वास (संशोधन) अधिनियम २०२३ (२०२३ का १८) की धारा २ और अनुसूची द्वारा (इस अध्याय के अधीन) शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित।
४. क्षति या शब्दों का जन विश्वास (संशोधन) अधिनियम २०२३ (२०२३ का १८) की धारा २ और अनुसूची द्वारा लोप किया गया।