हिन्दू विवाह अधिनियम १९५५
धारा १३ :
विवाह-विच्छेद :
(१) कोई भी विवाह, वह इस अधिनियम के प्रारम्भ के चाहे पूर्व अनुष्ठापित हुआ हो चाहे पश्चात, पति अथवा पत्नी द्वारा उपस्थापित अर्जी पर विवाह- विच्छेद की डिक्री द्वारा इस आधार पर विघटित किया जा सकेगा कि-
१.(एक) दूसरे पक्षकार ने विवाह के अनुष्ठान के पश्चात अपने पति या अपनी पत्नी से भिन्न किसी व्यक्ति के साथ
स्वेच्छया मैथुन किया है; या
(ia)(एक-क) दूसरे पक्षकार ने विवाह के अनुष्ठान के पश्चात अर्जीदार के साथ क्रूरता का व्यवहार किया है; या)
(ib)(एक-ख) दूसरे पक्षकार ने अर्जी के पेश किए जाने के अव्यवहित पूर्व कम से कम दो वर्ष की निरन्तर कालावधि पर
अर्जीदार के अभित्यक्त रखा है; या)
(दो) दूसरा पक्षकार अन्य धर्म में संपरवर्तित हो जाने के कारण हिन्दू नहीं रह गया है; या
२.(तीन) दूसरा पक्षकार असाध्य रूप से विकृत- चित्त रहा है अथवा निरन्तर या आंतरायिक रूप से इस प्रकार के और इस हद तक मानसिक विकार से पीड़ित रहा है कि अर्जीदार से युक्तियुक्त रूप से यह आशा नहीं की जा सकती है कि वह प्रत्यर्थी के साथ रहे।
स्पष्टीकरण :
इस खण्ड में,-
(a)(क) मानसिक विकार पद से मानसिक बीमारी, मस्तिष्क का संरोध या अपूर्ण विकास, मनोविकृति या का कोई अन्य विकार या नि:शक्तता अभिप्रेत है और इसके अंतर्गत विखंडित मनस्कता भी है;
(b)(ख) मनोविकृति पद से मस्तिष्क का दीर्घ स्थायी विकार या निःशक्तता ( चाहे इसमें वृद्धि की अवसामान्यता हो या नहीं) अभिप्रेत है जिसके परिणामस्वरूप दूसरे पक्षकार का आचरण असामान्य रूप से आक्रामक या गंभीर रूप से अनुत्तरदायी हो जाता है और चाहे उसके लिए चिकित्सीय उपचार अपेक्षित हो या नहीं अथवा ऐसा उपचार किया जा सकता हो या नहीं; या)
१०.(***)
(पांच) ३.(दुसरा पक्षकार) संचारी रूप से रतिज रोग से पीड़ित रहा है; या
(छह) दूसरा पक्षकार किसी धार्मिक पंथ के अनुसार प्रव्रज्या ग्रहण कर चुका है; या
(सात) दूसरा पक्षकार जीवित है या नहीं इसके बारे में सात वर्ष या उससे अधिक की कालावधि के भीतर उन्होंने कुछ नहीं सुना है जिन्होंने उसके बारे में यदि वह पक्षकार जीवित होता तो स्वभाविकतः सुना होता।
४.(***)
५.(स्पष्टीकरण :
इस उपधारा में अभित्यजन पद से विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा अर्जीदार का ऐसा अभित्यजन अभिप्रेत है जो युक्तियुक्त कारण के बिना और ऐसे पक्षकार की सम्मति के बिना या इच्छा के विरुद्ध हो और इसके अन्तर्गत विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा जानबूझकर अर्जीदार की उपेक्षा करना भी है और इस पद के व्याकरिणक रूपभेदों तथा सजातीय पदों के अर्थ तदनुसार लगाए जाएंगे ।)
(1A)६.(१क) विवाह का कोई भी पक्षकार, विवाह इस अधिनियम के प्रारंभ के चाहे पूर्व अनुष्ठापित हुआ हो चाहे पश्चात, विवाह विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन के लिए इस आधार पर भी अर्जी उपस्थापित कर सकेगा –
(एक) कि ऐसी कार्यवाही में पारित, जिसके उस विवाह के पक्षकार, पक्षकार थे, न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के
पश्चात ७.(एक वर्ष) या उससे ऊपर की कालावधि भर, उन पक्षकारों के बीच सहवास का कोई पुनरारंभ नहीं हुआ है; या (दो) कि ऐसी कार्यवाही में पारित, जिसके उस विवाह के पक्षकार, पक्षकार थे, दाम्पत्याधिकार के प्रत्यास्थापन की डिक्री के पश्चात ७.(एक वर्षे) या उससे ऊपर की कालावधि भर, उन पक्षकारों के बीच दाम्पत्याधिकारों का कोई प्रत्यास्थापन नहीं हुआ है ।)
(२) पत्नी विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा अपने विवाह के विघटन के लिए इस आधार पर भी अर्जी उपस्थापित कर सकेगी –
(एक) कि इस अधिनियम के प्रारंभ के पूर्व अनुष्ठापित विवाह की दशा में, पति ने ऐसे प्रारंभ के पूर्व फिर विवाह कर लिया था या कि अर्जीदार के विवाह के अनुष्ठान के समय पति की कोई ऐसी दूसरी पत्नी जीवित थी जिसके साथ उसका विवाह ऐसे प्रारंभ के पूर्व हुआ था :
परन्तु यह तब जब कि दोनों दशाओं में दूसरी पत्नी अर्जी के उपस्थान के समय जीवित हो; या
(दो) कि पति विवाह के अनुष्ठापन के पश्चात बलात्संग, गुदामैथुन या पशुगमन का ८.(दोषी रहा है; या)
९.(तीन) कि हिन्दू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, १९५६ (१९५६ का ७८) की धारा १८ के अधीन वाद में या दण्ड प्रक्रिया संहिता, १९७३ (१९७४ का २) की धारा १२५ के अधीन (या दण्ड प्रक्रिया संहिता, १८९८ (१८९८ का ५) की तत्समान धारा ४८८ के अधीन) कार्यवाही में, पत्नी को भरण-पोषण दिलवाने के लिए पति के विरुद्ध, यथास्थिति, डिक्री या आदेश इस बात के होते हुए भी पारित किया गया है कि वह अलग रहती थी और ऐसी डिक्री या आदेश के पारित किए जाने के समय से एक वर्ष या उससे ऊपर की कालावधि भर पक्षकारों के बीच सहवास का पुनरारम्भ नहीं हुआ है;
(चार) कि उसका विवाह (चाहे विवाहोत्तर संभोग हुआ हो या नहीं) उसकी पन्द्रह वर्ष की आयु हो जाने के पूर्व अनुष्ठापित किया गया था और उसने पन्द्रह वर्ष की आयु प्राप्त करने के पश्चात किन्तु अठारह वर्ष की आयु प्राप्त करने के पूर्व विवाह का निराकरण कर दिया है।
स्पष्टीकरण :
यह खण्ड उस विवाह को भी लागू होगा जो विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, १९७६ ( १९७६ का ६८) के प्रारंभ के पूर्व या उसके पश्चात अनुष्ठापित किया गया है।)
————-
१. १९७६ के अधिनियम सं० ६८ की धारा ७ द्वारा खंड (एक) के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
२. १९७६ के अधिनियम सं० ६८ की धारा ७ द्वारा खण्ड (दो) के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
३. १९७६ के अधिनियम सं० ६८ की धारा ७ द्वारा कतिपय शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
४. १९६४ के अधिनियम सं० ४४ की धारा २ द्वारा खंड (सात) और खंड (नौ) का लोप किया गया।
५. १९७६ के अधिनियम सं० ६८ की धारा ७ द्वारा अंत:स्थापित ।
६. १९६४ के अधिनियम सं० ४४ की धारा २ द्वारा अंत:स्थापित ।
७. १९७६ के अधिनियम सं० ६८ की धारा ७ द्वारा दो वर्ष के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
८. १९७६ के अधिनियम सं० ६८ की धारा ७ द्वारा दोषी रहा है के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
९. १९७६ के अधिनियम सं० ६८ की धारा ७ द्वारा अंत:स्थापित।
१०. (चार) ३.(दूसरा पक्षकार) उम्र और असाध्य कुष्ठ से पीड़ित रहा है; या इस खंड को २०१९ के अधिनियम सं० ६ की धारा ५ द्वारा लोप किया गया ।