भारत का संविधान
अनुच्छेद ३७२ :
विद्यमान विधियों का प्रवृत्त बने रहना और उनका अनुकूलन ।
१)अनुच्छेद ३९५ में निर्दिष्ट अधिनियमितियों का इस संविधान द्वारा निरसन होने पर भी, किंतु इस संविधान के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले भारत के राज्यक्षेत्र में सभी प्रवृत्त विधि वहां तब तक प्रवृत्त बनी रहेगी जब तक किसी सक्षम विधान-मंडल या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा उसे परिवर्तित या निरसित या संशोधित नहीं कर दिया जाता है ।
२) भारत के राज्यक्षेत्र में किसी प्रवृत्त विधि के उपबंधों को इस संविधान के उपबंधों के अनुरूप बनाने के प्रयोजन के लिए राष्ट्रपति, आदेश१.() द्वारा, ऐसी विधि में निरसन के रूप में या संशोधन के रूप में ऐसे अनुकूलन और उपांतरण कर सकेगा जो आवश्यक या समीचीन हों और यह उपबंध कर सकेगा कि वह विधि ऐसी तारीख से जो आदेश में विनिर्दिष्ट की जाए, इस प्रकार किए गए अनुकूलनों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए प्रभावी होगी और किसी ऐसे अनुकूलन या उपांतरण को किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जाएगा ।
३)खंड (२) की कोई बात –
क) राष्ट्रपति को इस संविधान के प्रारंभ से २(तीन वर्ष ) की समाप्ति के पश्चात् विधि का कोई अनुकूलन या उपांतरण करने के लिए सशक्त करने वाली, या ख) किसी सक्षम विधान-मंडल या अन्य सक्षम प्राधिकारी को, राष्ट्रपति द्वारा उक्त खंड के अधीन अनुकूलित या उपांतरित किसी विधि का निरसन या संशोधन करने से रोकने वाली, नहीं समझी जाएगी ।
स्पष्टीकरण १ :
इस अनुच्छेद में, प्रवृत्त विधि पद के अंतर्गत ऐसी विधि है जो इस संविधान के प्रारंभ से पहले भारत के राज्यक्षेत्र में किसी विधान-मंडल द्वारा या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा पारित की गई है या बनाई गई है और पहले ही निरसित नहीं कर दी गई है, भले ही वह या उसके कोई भाग तब पूर्णत: या किन्हीं विशिष्ट क्षेत्रों में प्रवर्तन में न हों ।
स्पष्टीकरण २ :
भारत के राज्यक्षेत्र में किसी विधान-मंडल द्वारा या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा पारित की गई या बनाई गई ऐसी विधि का, जिसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले राज्यक्षेत्रातीत प्रभाव था और भारत के राज्यक्षेत्र में भी प्रभाव था, यथापूर्वाेक्त किन्हीं अनुकूलनों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए, ऐसा राज्यक्षेत्रातीत प्रभाव बना रहेगा ।
स्पष्टीकरण ३ :
इस अनुच्छेद की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह किसी अस्थायी प्रवृत्त विधि को, उसकी समाप्ति के लिए नियत तारीख से, या उस तारीख से जिसको, यदि वह संविधान प्रवृत्त न हुआ होता तो, वह समाप्त हो जाती, आगे प्रवृत्त बनाए रखती है ।
स्पष्टीकरण ४ :
किसी प्रांत के राज्यपाल द्वारा भारत शासन अधिनियम, १९३५ की धारा ८८ के अधीन प्रख्यापित और इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रवृत्त अध्यादेश, यदि तत्स्थानी राज्य के राज्यपाल द्वारा पहले ही वापस नहीं ले लिया गया है तो, ऐसे प्रारंभ के पश्चात् अनुच्छेद ३८२ के खंड (१) के अधीन कार्यरत उस राज्य की विधान सभा के प्रथम अधिवेशन से छह सप्ताह की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगा और इस अनुच्छेद की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह ऐसे किसी अध्यादेश को उक्त अवधि से आगे प्रवृत्त बनाए रखती है ।
———-
१.देखिए, अधिसूचना सं.का.नि.आ. ११५, तारीख ५ जून १९५०, भारत का राजपत्र, असाधारण, भाग २, अनुभाग ३, पृ.५१; सं. का.नि.आ. ८७०, तारीख ४ नवंबर, १९५०, भारत का राजपत्र, असाधारण, भाग २, अनुभाग ३, पृ. ९०३; अधिसूचना सं. का.नि.आ. ५०८, तारीख ४ अप्रैल, १९५१, भारत का राजपत्र, असाधारण, भाग २, अनुभाग ३, पृ. २८७; अधिसूचना सं. का.नि.आ. ११४०-ख, तारीख २ जुलाई, १९५२, भारत का राजपत्र, असाधारण , भाग २, अनुभाग ३, पृ.६१६/आय ; और त्रावणकोर- कोचीन भूमि अर्जन विधि अनुकूलन आदेश, १९५२, तारीख २०नवंबर, १९५२ भारत का राजपत्र, असाधारण, भाग २, अनुभाग ३, पृ.९२३ द्वारा यथासंशोधित विधि अनुकूलन आदेश, १९५०, तारीख २६ जनवरी, १९५०, भारत का राजपत्र, असाधारण, पृ.४४९।
२.संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, १९५१ की धारा १२ द्वारा दो वर्ष के स्थान पर प्रतिस्थापित ।