भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता २०२३
धारा ४०१ :
सदाचरण की परिवीक्षा पर या भत्र्सना के पश्चात् छोड देने का आदेश :
१) जब कोई व्यक्ति जो इक्कीस वर्ष से कम आयु का नहीं है केवल जुर्माने से या सात वर्ष या उससे कम अवधि के कारावास से दण्डनीय अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जाता है अथवा जब कोई व्यक्ति जो इक्किस वर्ष से कम आयु का है या कोई स्त्री ऐसे अपराध के लिए, जो मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय नहीं है, दोषसिद्ध की जाती है और अपराधी की आयु शील या पूर्ववृत्त को और उन परिस्थितियों को, जिनमें अपराध किया गया, ध्यान में रखते हुए यह प्रतीत होता है कि अपराधी को सदाचरण की परिवीक्षा पर छोड देना समीचीन है तो न्यायालय उसे तुरन्त कोई दण्डादेश देने के बजाय निदेश दे सकता है कि उसे उसके द्वारा यह बंधपत्र या जमानतपत्र लिख देने पर छोड दिए जाए कि वह (तीन वर्ष से अनधिक) इतनी अवधि के दौरान, जितनी न्यायालय निर्दिष्ट करे, बुलाए जाने पर हजिर होगा और दण्डादेश पाएगा और इस बीच परिशांति कायम रखेगा और सदाचारी बना रहेगा :
परन्तु जहाँ कोई प्रथम अपराधी किस द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा, जो उच्च न्यायालय द्वारा विशेषतया सशक्त नहीं किया गया है, दोषसिद्ध किया जाता है और मजिस्ट्रेट की यह राय है कि इस धारा द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग किया जाना चाहिए वहाँ वह उस भाव की अपनी राय अभिलिखित करेगा और प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को वह कार्यवाही निवेदित करेगा और उस अभियुक्त को उस मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा अथवा उसकी उस मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिरी के लिए जमानत लेगा और वह मजिस्ट्रेट उस मामले का निपटारा उपधारा (२) द्वारा उपबंधित रीति से करेगा ।
२) जहाँ कोई कार्यवाही प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को उपधारा (१) द्वारा उपबंधित रुप में निवेदित की गई है, वहाँ ऐसा मजिस्ट्रेट उस पर ऐसा दण्डादेश या आदेश दे सकता है जैसा यदि मामला मूलत: उसके द्वारा सुना गया होता तो वह दे सकता और यदि वह किसी प्रश्न पर अतिरिक्त जाँच या अतिरिक्त साक्ष्य आवश्यक समझता है तो वह स्वयं ऐसी जाँच कर सकता है या ऐसा साक्ष्य ले सकता है अथवा ऐसी जाँच किए जाने या ऐसा साक्ष्य लिए जाने का निदेश दे सकता है ।
३) किसी ऐसी दशा में, जिसमें कोई व्यक्ति चोरी, किसी भवन में चोरी, बेईमानी से दुर्विनियोग, छल या भारतीय न्याय संहिता २०२३ के अधीन दो वर्ष से अनधिक कारावास से दण्डनीय किसी अपराध के लिए या केवल जुर्माने से दण्डनीय किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जाता है और उसके विरुद्ध कोई पूर्व दोषसिद्धी साबित नहीं की गई है,यदि वह न्यायालय, जिसके समक्ष वह ऐसे दोेषसिद्ध किया गया है, ठीक समझे, तो वह अपराधी की आयु, शील, पुर्ववृत्त या शारीरिक या मानसिक दशा को और अपराध की तुच्छ प्रकृति को, या किन्हीं परिशमनकारी परस्थितियों को, जिनमें अपराध किया गया था, ध्यान में रखते हुए उसे कोई दण्डादेश देने के बजाय सम्यक् भत्र्सना के पश्चात् छोड सकता है ।
४) इस धारा के अधीन आदेश किसी अपील न्यायालय द्वारा या उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय द्वारा भी किया जा सकेगा जब वह अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग कर रहा हो ।
५) जब किसी अपराधी के बारे में इस धारा के अधीन आदेश दिया गया है तब उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय, उस दशा में जब उस न्यायालय में अपील करने को अधिकार है, अपील किए जाने पर, या अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग करते हुए, ऐसे आदेश को अपास्त कर सकता है और ऐसे अपराधी को उसके बदले में विधि के अनुसार दण्डादेश दे सकता है :
परन्तु उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय इस उपधारा के अधीन उस दण्ड से अधिक दण्ड न देगा जो उस न्यायालय द्वारा दिया जा सकता था जिसके द्वारा अपराधी दोषसिद्ध किया गया था ।
६) धारा १४०, धारा १४३ और ४१४ के उपबंध इस धारा के उपबंधो के अनुसरण में पेश किए गए प्रतिभुओं के बारे में जहाँ तक हो सके, लागू होंगे ।
७)किसी अपराध के उपधारा (१) के अधीन छोडे जाने का निदेश देने के पूर्व न्यायालय अपना समाधान कर लेगा कि उस अपराधी का, या उसके प्रतिभू का (यदि कोई हो) कोई नियत वास स्थान या नियमित उपजीविका उस स्थान में है जिसके सम्बन्ध में वह न्यायालय कार्य करता है या जिसमें अपराधी के उस अवधि के दौरान रहने की संभाव्यता है, जो शर्तों के पालन के लिए उल्लिखित की गई है ।
८)यदि उस न्यायालय का, जिसने अपराधी को दोषसिद्ध किया है, या उस न्यायालय का, जो अपराधी के सम्बन्ध में उसके मूल अपराध के बारे में कार्यवाही कर सकता था, समाधान हो जाता है कि अपराधी अपने मुचलके की शर्तों में से किसी का पालन करने में असफल रहा है तो वह उसके पकडे जाने के लिए वारण्ट जारी करा सकता है ।
९)जब कोई अपराधी ऐसे किसी वारण्ट पर पकडा जाता है तब वह वारण्ट जारी करने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष तत्काल लाया जाएगा और वह न्यायालय या तो तब तक के लिए उसे अभिरक्षा में रखे जाने के लिए प्रतिप्रेषित कर सकता है जब तक मामले में सुनवाई न हो, या इस शर्त पर कि वह दण्डादेश के लिए हाजिर होगा, पर्याप्त प्रतिभूति लेकर जमानत मंजूर कर सकता है और ऐसा न्यायालय मामले की सुनवाई के पश्चात दण्डादेश दे सकता है ।
१०) इस धारा की कोई बात, अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, १९५८ (१९५८ का २०) या किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम २०१५ या किशोर अपराधियों के उपचार, प्रशिक्षण या सुधार से सम्बन्धित तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबंधो पर प्रभाव न डालेगी ।