भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता २०२३
धारा ३६८ :
न्यायालय के समक्ष विचारित व्यक्ति के विकृत चित्त होने की दशा में प्रक्रिया :
१) यदि किसी मजिस्ट्रेट या सेशन न्यायालय के समक्ष किसी व्यक्ति के विचारण के समय उस मजिस्ट्रेट या न्यायालय को वह व्यक्ति विकृत चित्त और परिणामस्वरुप अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ प्रतीत होता है, तो वह मजिस्ट्रेट या न्यायालय, प्रथमत: ऐसी चित्त-विकृति और असमर्थता के तथ्य का विचारण करेगा और यदि उस मजिस्ट्रेट या न्यायालय का ऐसे चिकित्सीय या अन्य साक्ष्य पर, जो उसके समक्ष पेश किया जाता है, विचार करने के पश्चात् उस तथ्य के बारे में समाधान हो जाता है तो वह उस भाव का निष्कर्ष अभिलिखित करेगा और मामले में आगे की कार्यवाही मुल्तवी कर देगा ।
२) यदि विचारण के दौरान, मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायालय पाता है कि अभियुक्त विकृत चित्त है, वह या यह ऐसे व्यक्ती को किसी मनोचिकित्सक या चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक के पास देख-रेख तथा उपचार के लिए निर्दिष्ट करेगा, और यथास्थिति मनोचिकित्सक, या चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक मजिस्ट्रेट या न्यायालय को यह रिपोर्ट देगा कि क्या अभियुक्त चित्त-विकृति से ग्रस्त है :
परन्तु यह कि यदि अभियुक्त, यथास्थिति, मनोचिकित्सक या चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक द्वारा मजिस्ट्रेट को दी गई सूचना द्वारा व्यथित है, वह मेडिकल बोर्ड के समक्ष अपील कर सकता है जिसमें सम्मिलित होंगे :-
(a) क) निकटतम शासकीय चिकित्सालय में के मनोचिकित्सक इकाई के प्रमुख; और
(b) ख) निकटतम मेडिकल कॉलेज के मनोचिकित्सक में संकाय का कोई सदस्य ।
३) यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय को सूचित किया जाता है कि उपधारा (२) में निर्दिष्ट व्यक्ति विकृत-चित्त व्यक्ति है, तब मजिस्ट्रेट या न्यायालय यह और अवधारित करेगा कि चित्त-विकृति के कारण अभियुक्त को अभिरक्षा करने में अक्षम बनाती है तथा यदि अभियुक्त इस प्रकार अक्षम पाया जाता है तो मजिस्ट्रेट या न्यायालय इस प्रभाव का निष्कर्ष अभिलिखित करेगा तथा अभियोजन द्वारा पेश किए गए साक्ष्य के अभिलेख का परिक्षण करेगा तथा अभियुक्त के अधिवक्ता को सुनने के पश्चात् लेकिन अभियुक्त से प्रश्न किए बिना, यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय पाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्ट्या मामला सिद्ध नहीं होता है, वह या यह विचारण का स्थगित करने के स्थान पर अभियुक्त को उन्मोचित करेगा तथा उसके बारे में धारा ३६९ के अधीन उपबन्धित ढंग में कार्यवाही करेगा :
परन्तु यह कि यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय पाता है कि उस अभियुक्त के विरुद्ध जिसके सम्बन्ध में चित्त-विकृति होने का निष्कर्ष निकाला गया है, प्रथम दृष्ट्या मामला सिद्ध होता है वह विचारण के ऐसी अवधि के लिए मुल्तवी करेगा, जैसा कि मनोचिकित्सक या चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक की राय में अभियुक्त के उपचार के लिए अपेक्षित है ।
४) यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय पाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्ट्या मामला सिद्ध होता है तथा बौद्धिक दिव्यांगता के कारण वह प्रतिरक्षा करने में अक्षम है, वह या वह विचारण नहीं करेगा तथा अभियुक्त के बारें में धारा ३६९ के अनुसार कार्यवाही करना आदेशित करेगा ।